सतत् विकास हेतु सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में सावित्रीबाई फुले के योगदान का अध्ययन

सुश्री रेखा कुमारी
शोधार्थी एवं अतिथि सहायक आचार्य
अर्थशास्त्र विभाग, कला, शिक्षा व सामाजिक विज्ञान संकाय
जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर एवं
राजकीय महाविद्यालय, पिड़ावा, झालावाड़ (राजस्थान) भारत

शोध सारांश

प्रस्तुत शोध पत्र में महाराष्ट्र की आदिकवियत्री के नाम से प्रसिद्ध देश की प्रथम शिक्षित महान् महिला, समाज सुधारक एवं अद्भुत बहुमुखी प्रतिभा की धनी सावित्रीबाई फुले के सामाजिक, आथिर्क एवं शैक्षिक विकास में योगदान के विभिन्न आयामों का सतत् विकास हेतु विस्तार से विश्लेषण कर ध्यान केन्द्रित किया गया हैं।  सावित्रीबाई फुले का मुख्य उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था जो अज्ञानता, कट्टरता, अशिक्षा, अभाव और भूख से मुक्त हो और महिलाएं व वंचित वर्ग मानवीय, गरिमापूर्ण, बंधन मुक्त, व स्वतंत्रत जीवन व्यतीत कर सके । ताकि हमारे देश का ‘ एक विकसित भारत, एक श्रेष्ठ भारत, एक नव भारत का सपना मूर्त रूप ले सकें। तथा साथ ही हमारे देश का सतत्, निरन्तर एवं सर्वागीण विकास संभव हो सकें।

बीज शब्द-सावित्रीबाई फुले की जीवनी, सतत् विकास की अवधारणा, सामाजिक ,आर्थिक ,शैक्षिक विकास, महिलाओ की भागीदारी, सावित्रीबाई फुले का योगदान  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक समानता।

“बेटी के विवाह से पूर्व उसे शिक्षित बनाओं

ताकि वह अच्छे और बुरे की पहचान कर सकें ll”

प्रस्तावना-

अर्थात् किसी भी देश व समाज की प्रगति एवं विकास तब ही संभव हो सकता है जब देश की हर एक महिला शिक्षित हो। वरन् प्राचीन भारत में महिलाओं को लेकर एक और विरोधाभास पाया गया है। एक ओर बहु-विवाह और दूसरी ओर बहु-पति प्रथा के उदाहरण हैं।रामायण काल में एक पत्नी और बहु-पत्नी परिवार थे। महाभारत काल में बहु-पति, एकल- पति एवं बहु-पत्नी परिवारों का वर्णन मिलता है। मध्यकालीन युग में महिलाओं की स्थिति में भारी गिरावट आई। यह वास्तव में दयनीय और निंदनीय था क्योंकि संपत्ति का अधिकार अब महिलाओं को प्राप्त नहीं था।इस अवधि के दौरान महिलाओं पर थोपी गई प्रमुख परंपराओं में जौहर और सती प्रथा जैसी प्रथाओं का विकास हुआ जो मानवीय दृष्टिकोण से अत्यधिक क्रूर, भयानक और डरावनी है। इनके अतिरिक्त पर्दा प्रथा, बाल- विवाह, देवदासी प्रथा जैसी प्रथाएं थीं। इन प्रथाओं के कारण महिलाओं का जीवन केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित होकर रह गया। परिणामस्वरूप कन्या भ्रूण हत्या व बालिकाओं की हत्या,महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और महिला हत्याएँ बढ़ीं। अंततः “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः“ का सिद्धांत केवल किताब के पन्नों तक सीमित हो गया। सावित्रीबाई फुले ने इस  । संबंध में लिखा कि

महिलाओं को देवी बनाने की अपेक्षा उनको पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान दिया जाए। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर अस्पृश्यता, आधिपत्य, जातिवादी व्यवस्था, समाज विरोधी यथास्थितिवादी ताकतों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़कर महिलाओं की शिक्षा के लिए क्रांतिकारी अभियान शुरू किया। जिनकी वजह से ही आज के समाज में महिलाओं को भी शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त हो पाये हैं और देश के विकास में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित हो पायी हैं वरन् प्राचीनकाल में महिलाओं को इतनी सम्मानजनक स्थिति प्राप्त नहीं थी। जो आज के युग में महिलाओं को प्राप्त हैं। तथा सावित्रीबाई फुले के प्रयासों से ही आज महिलाओं को चूल्हा चौका से आगे निकलकर पढ़ने का अवसर मिला हैं, उन्हें आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता हैं। सावित्रीबाई फुले ने जाति, धर्म और क्षेत्र की भावनाओं से ऊपर उठकर विभिन्न धर्मो व जातियों की महिलाओं को शिक्षित करके अतुल्नीय काम किया है । यदि हिंदू धर्म से संबंधित सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम महिला शिक्षक माना जाता है तो उसकी सहयोगिनी बेगम फातिमा शेख को उसके समतुल्य मानते हुए भारत के प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षक के रूप में सम्मान के रूप में देखा जाता है ।

शोध के उद्देश्य-

प्रस्तुत शोध पत्र का अध्ययन करने के पश्चात आप इस योग्य हो सकेंगे कि आप-

1। प्रस्तुत शोध अध्ययन का सैध्दांतिक एवं व्यवहारिक रूप समझ सकेंगे ।

2। प्रस्तुत शोध अध्ययन का वर्णनात्मक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सकेंगे।

3।प्रस्तुत शोध अध्ययन का वर्तमान समय की प्रासंगिकता के अनुसार तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे।

4। प्रस्तुत शोध अध्ययन से प्रेरणा लेकर आने वाले समय में हमारे देश को ओर भी ज्यादा सशक्त, सुदृढ़ व विकसित बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकेंगे।

शोध सहित्य की समीक्षा-

प्रस्तुत शोध पत्र में सावित्रीबाई फुले के सतत् विकास हेतु सामाजिक, आथिर्क एवं  शैक्षिक विकास में योगदान के प्रमुख विषयों और अवधारणाओं की पड़ताल की गई हैं, जिसमें बताया गया हैं कि सामान्यतया सतत् विकास का तात्पर्य है बिना रुकें विकास । अर्थात्  सतत् विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है ।  ।दूसरे शब्दों में सतत् विकास, वृद्धि और मानव विकास के लिए एक दृष्टिकोण है। जिसका उद्देश्य भविष्य की पीढ़ियों की अपनी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझोता किए बिना वतर्मान की जरूरतों को पूरा करना हैं । इसका उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना हैं जहां रहने की स्थितियां और संसाधन ग्रह की अखंडता को कम किए बिना मानवीय

आवश्यकताओं कों पूरा करते हैं । सतत् विकास का उद्देश्य अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और समाज की जरूरतों को संतुलित करना हैं । आज विश्व के सभी देश अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना चाहते हैं और उन्हें वह सभी आधुनिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहते हैं । जो सामान्यजन के जीवन के लिए आवश्यक हैं । अतः आर्थिक विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप वास्तविक राष्ट्रीय आय अथवा प्रति व्यक्ति वास्तविक आय अथवा जनसामान्य के आर्थिक कल्याण में दीर्घकालीन वृद्धि होती हैं । सावित्रीबाई फुले का मानना था कि शिक्षा महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने की कुंजी है। उन्होंने लड़कियों और महिलाओं के लिए स्कूल खोले और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि जब महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र एवं सशक्त होंगी, तो वे सामाजिक रूप से भी सशक्त होंगी।  उनका मानना था कि शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सभी को एक साथ प्राप्त करने की आवश्यकता है। ताकि हमारे देश का सतत्, निरन्तर एवं सर्वागीण विकास संभव हो सकें।

जीवन परिचय-

सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को पुणे से 50 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के नायगांव, पिता खन्दोजी नैवेसे और माता लक्ष्मीबाई के माली परिवार में हुआ। माली जाति (अब सैनी जाति)को  ।महाराष्ट्र में मूल निवासी माना जाता है।कुछ विद्वानों सावित्री बाई फुले को महार जाति में भी संबंधित मानतें हैं। (इस समय महाराष्ट्र में माली जाति ओबीसी की श्रेणी में वर्गीकृत की गई है।) यही कारण है कि आज माली (सैनी जाति) व महार जाति (उत्तर भारत में विशेष रूप से चमार जाति)– दोनों ही सावित्रीबाई फुले को अपने-अपनी जातियों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। सैनी जाति के द्वारा ज्योतिबा फुले को’ “राष्ट्रपिता” और सावित्रीबाई फुले को’राष्ट्रमाता’ के नाम से संबोधित किया जाता है। हमारा यह मानना है कि चाहे व्यक्ति किसी भी जाति में पैदा हुआ हो वह समाज सुधारक के रूप में केवल अपनी जाति के लिए नहीं अपितु समस्त समाज के लिए कार्य में संलग्न होता है ।प्रत्येक समाज सुधारक लघु संर्कीणताओं — जाति, धर्म, क्षेत्र, इत्यादि से ऊपर होता है। सावित्रीबाई फुले कोई अपवाद नहीं है।

सावित्री बाई फुले की शादी सन् 1841 में लगभग 10 वर्ष की आयु में ज्योतिराव फुले से हो गई थी। ज्योतिराव फुले उस समय 11 वर्ष के थे। प्रचलित प्रथा के अनुसार यह एक बाल विवाह था जबकि कलांतर मे उन्होंने सारी जिंदगी बाल विवाह का विरोध किया। शादी के समय सावित्री बाई फूले बिल्कुल निरक्षर व अनपढ़ थी। उस समय लड़कियों को पढ़ाना गलत व ‘पाप’ माना जाता था। महिलाओं के पिछड़ेपन का यह मुख्य कारण था। ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अपनी बहन सगुना बाई के साथ घर में ही स्वयं शिक्षित करना प्रारंभ किया। घर पर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के मित्रों- सुखराम यशवंत राय परांजपे व केशव शिवराम भावलकर से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात सावित्री बाई फूले अमेरिकी मिशनरी स्कूल (अहमदनगर) में शिक्षक प्रशिक्षण ग्रहण किया व नॉर्मल स्कूल( पुणे) से कोर्स किया। शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के प्रोत्साहन के कारण सावित्रीबाई फुलेऔर ज्योतिबा फुले की चचेरी बहन सगुनाबाई ने पुणे में लड़कियों को पढ़ाना प्रारंभ किया।

तत्कालीन समाज में यह एक आश्चर्यजनक कदम था जो कालान्तर में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। यद्धपि फुले शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘फूल’ है परन्तु फुले दम्पति के मार्ग में ‘फूल कम और कांटे ज्यादा’ थे। उस समय लड़कियों को पढ़ाना एक पाप समझा जाता था। यही कारण है कि इन दोनों को ज्योतिबा फुले के पिता जी जो एक रूढ़िवादी संकीर्ण मानष्किता से ग्रस्त थे फुले दंपति अपने घर से निकाल दिया। फुले दंपति घर से बेघर हो गए। मुस्लिम मित्र उस्मान शेख के घर में शरण लेनी पड़ी। सावित्रीबाई समाज सुधारक और शिक्षिका होने के साथ-साथ एक महान कवित्री भी थी। सावित्रीबाई फुले को मराठी भाषा की प्रथम ‘आदि कवित्री’ के नाम से जाना जाता है। सन् 1854 में सावित्रीबाई फुले की भाषा में मराठी में लिखित प्रथम काव्या पुस्तक”काव्या फुले” (कविता के फूल ) प्रकाशित हुई । समाज में आम धारणा यह है कि प्रत्येक पुरुष की कामयाबी में पत्नी का हाथ होता है। परंतु सावित्रीबाई फुले की सफलता के पीछे उसके पति ज्योतिबा फुले का निरंतर समर्पित सहयोग रहा है। वास्तव में महात्मा ज्योतिबा फुले सावित्रीबाई फुले के ‘संरक्षक, गुरु और समर्थक’ थे । यही कारण है कि सावित्रीबाई फुले अपने पति ज्योतिबा फुले को ‘सत्य का अवतार’, ‘भगवान’ और ‘देवता’ मानती थी जैसा कि पत्राचार से जाहिर होता है

सतत् विकास की अवधारणा-

सामान्यतया सतत् विकास का तात्पर्य है बिना रुकें विकास अर्थात्  सतत् विकास निरन्तर  चलने वाली प्रक्रिया है दूसरे शब्दों में सतत् विकास, वृद्धि और मानव विकास के लिए एक दृष्टिकोण है। जिसका उद्देश्य भविष्य की पीढीयों की अपनी जरूरतों कों पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान की जरूरतों कों पूरा करना हैं । इसका उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना हैं जहां रहने की स्थितियां और संसाधन ग्रह की अखंडता को कम किए बिना मानवीय आवश्यकताओं कों पूरा करते हैं। सतत् विकास का उद्देश्य अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और समाज की जरूरतों को संतुलित करना हैं। 1987 में ब्रुन्डलैंड रिपोर्ट ने सतत् विकास की अवधारणा कों बेहत्तर ढ़ंग से जानने में मदद की। सतत् विकास स्थिरता के विचार के साथ ओवरलेप करता हैं जो एक मानव अवधारणा हैं। यूनेस्कों ने दो अवधारणाओं के बीच एक अंतर इस प्रकार तैयार किया “स्थिरता को अक्सर एक दीर्घकालिक लक्ष्य ( यानी अधिक टिकाऊ दुनिया ) के रूप में माना जाता हैं, जबकि सतत् विकास इसे प्राप्त करने के लिए कई प्रक्रियाओं और मार्गो को संदर्भित करता हैं।” रिडिजेनेरियो में 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन से। शुरू हुई रियो प्रकिया ने सतत् विकास की अवधारणा कों अन्तर्राष्ट्रीय एजेंडे पर रखा हैं । सतत् विकास, सतत् विकास लक्ष्यों की मूलभूत अवधारणा हैं ।  सस्टेनेबल डेवलपमेंट मूलतः दो शब्दों सस्टेनेबल व डेवलपमेंट से मिलकर बना हैं। हिंदी भाषा में सस्टेनेबल के लिए स्थायी, सतत् सम्पूर्ण, निरंतर इत्यादि शब्द प्रचलित होते हैं । वर्ष 2030 के लिए

इन वैश्विक लक्ष्यों कों 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया था । वे वैश्विक चुनौतियो को सम्बोधित करते हैं, उदाहरण के लिए गरीबी, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, हानि और शांति इत्यादि । सतत् विकास की अवधारणा के साथ कुछ समस्याएं हैं । कुछ विद्वानों का कहना हैं कि यह एक विरोधाभास हैं क्योंकि उनके अनुसार, विकास स्वाभाविक रूप से अस्थिर हैं । पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए, स्थानीय की आवश्यकताओं की पूर्ति सतत् विकास हैं । विकास का विचार और महत्व समकालीन दुनिया में निरंतर लोकप्रिय हों रहा हैं । क्योंकि स्थायी विकास मानव समुदाय के साथ-साथ पर्यावरण के अस्तित्व से जुड़ा हैं ।

सामाजिक, आथिर्क एवं शैक्षिक विकास में सावित्रीबाई फुले का योगदान-

देश के सतत् व सर्वांगीण विकास में सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास स्थापित करने में अनेकों महान् महिलाओं व पुरुषों का अग्रणी योगदान रहा हैं जिनमें से एक प्रमुख महान् महिला सावित्रीबाई फुले थी जिनका योगदान देश के सतत् व सर्वांगीण विकास में स्मरणीय, चिरस्थाई, एवं विश्वसनीय रहा हैं जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता हैं। सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थी । महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में जाना जाता हैं । ज्योतिराव फुले, जो बाद में

ज्योतिबा फुले के नाम से जाने गए । सावित्रीबाई फुले के संरक्षक, गुरु और .समर्थक थे । सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह जिया । जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाया, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति, सुरक्षा और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना इत्यादि । वे एक कवियत्री  .भी थी। उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता हैं । सावित्रीबाई फुले देश की प्रथम महिला शिक्षिका थी । उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों की लड़कियों, विशेष रूप से पिछड़े, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की लड़कियों को शिक्षा की चोखट तक पहुंचाया । उनके लिए स्कूल खोले और ऐसे समय में लाखों लोगों के जीवन में शिक्षा के रूप में आशा की किरण जगाई, जब स्कूलों में जाना तो दूर की बात थी, जबकि कोसों दूर तक स्कूल ही नहीं थे।

वास्तव में यह भारतीय समाज में महिलाओं के समग्र सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था । सावित्रीबाई फुले, जो नारी शक्ति की प्रतीक हैं और नारी सशक्तिकरण का विषय अब केन्द्र  .और राज्य सरकारों का मुख्य केंद्र बन गया हैं। इसका श्रेय भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को जाता हैं । आज महिला सशक्तिकरण व समाज सुधार का अभियान ओर अधिक प्रासंगिक हो गया हैं । क्योंकि हम एक नए भारत – “एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण कर रहे हैं, जिसे सावित्रीबाई फुले के दृष्टिकोण को लागू किए बिना पूरा नहीं किया जा सकता हैं। गरीबों में सबसे गरीब लोगों की सेवा करने की उनकी प्रतिबद्धता थी । सावित्रीबाई फुले ने छुआछूत, अस्पृश्यता के कारण, सामाजिक रूप से पिछड़ी वंचित महिलाओं का जीवन स्तर ऊपर उठाने के उद्देश्य से शिक्षा की अलख जगाई ।

उनके महिला शिक्षा के अभियान को आगे बढ़ाते हुए भारतीय संविधान में भी समानता, न्याय, बंधुत्व और स्वतंत्रता को परिलक्षित किया गया हैं। | आज विश्व के सभी देश अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना चाहते हैं और उन्हें वह सभी आधुनिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहते हैं । जो सामान्यजन के जीवन के लिए आवश्यक हैं । अतः आर्थिक विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप वास्तविक राष्ट्रीय आय अथवा प्रति व्यक्ति वास्तविक आय अथवा जनसामान्य के आर्थिक कल्याण में दीर्घकालीन वृद्धि होती हैं । सावित्रीबाई फुले का मानना था कि शिक्षा, महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने की कुंजी है। उन्होंने लड़कियों और महिलाओं के लिए स्कूल खोले और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि जब महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र एवं सशक्त होंगी, तो वे सामाजिक रूप से भी सशक्त होंगी। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं के साथ-साथ दलितों और वंचित वर्गों के आर्थिक उत्थान के लिए भी काम किया। उन्होंने विधवाश्रम खोले, जहां

विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को आश्रय दिया जाता था, और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए शिक्षा दी जाती थी।

सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करना था। इस समाज के माध्यम से उन्होंने दहेज प्रथा का विरोध किया, विधवा विवाह को बढ़ावा दिया, और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।  उन्होंने 1876-79 के अकाल के दौरान, सत्यशोधक समाज ने अन्न

सत्र चलाए और आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों को खाना खिलाने की व्यवस्था की। इससे पता चलता है कि सावित्रीबाई फुले का आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के प्रति कितना समर्पण था। सावित्रीबाई फुले ने देश के पहले किसान स्कूल की स्थापना की, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों को भी शिक्षा और आर्थिक अवसरों तक पहुंचने में मदद मिली।1852 में, उन्होंने महिला सेवा मंडल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था। सावित्रीबाई फुले के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विचार, महिलाओं और वंचित वर्गों के सशक्तिकरण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सभी को एक साथ प्राप्त करने की आवश्यकता है। सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक के रूप में 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की । उन्होंने विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया । विधवा महिलाओं, निराश्रित महिलाओं,परिवार द्वारा छोडी गयी महिलाओं के लिए सन् 1854 में लिए एक आश्रम की स्थापना की, जो सन् 1864 विशाल भवन हो गया।

फुले दंपति ने दलित विधवा के बेटे को गोद लेकर एक सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया । 10 मार्च 1897 में, प्लेग महामारी के दौरान, उन्होंने संक्रमित लोगों की सेवा की और खुद भी इस बीमारी से संक्रमित होकर शहीद हो गईं । परंतु उनके द्वारा जलाई गई ज्योति की क्रांति निरंतर रूप से प्रकाश देकर लोगों का मार्गदर्शन कर रही है।  संक्षेप में सावित्रीबाई फुले निर्भीक और स्वतंत्र प्रथम महिला शिक्षक, विदुषी, समाज सुधारक, आदि कावित्री, समतावादी चिंतक, महिला शक्तिकरण की परोपकार व अग्रदूत के विचार आज भी प्रसंगिक हैं ।

शोध परिकल्पना-

प्रस्तुत शोध पत्र के अध्ययन हेतु कई परिकल्पनाएं परिलक्षित हैं जिनमें से संक्षिप्त क्रमश निम्न हैं:-

  1. सावित्रीबाई फुले जी ने सामाजिक,  आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।
  2. सतत् विकास हेतु सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में सावित्रीबाई फुले जी का योगदान वतर्मान समय में प्रासंगिक एवं अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
  3. देश के विकास में सावित्रीबाई फुले जी के योगदान का अद्भूत, अस्मरणीय, चिरस्थाई, एवं सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होता हैं।

शोध की विधि एवं आंकड़ों का संग्रह-

प्रस्तुत शोध पत्र में गुणात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति का उपयोग किया गया हैं। जिसमें प्राथमिक और द्वितीयक स्त्रोतों का महत्वपूर्ण विश्लेषण शामिल हैं। प्राथमिक स्त्रोतों मे सावित्रीबाई फुले के स्वयं के लेख, पत्र और भाषण इत्यादि शामिल हैं। जबकि द्वितीयक स्त्रोतों में लेखकों द्वारा सतत् विकास हेतु सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में सावित्राबाई फुले के योगदान और महत्वपूर्ण कार्यों पर आधारित विद्वतापूर्ण लेखों, पुस्तकों, शोध पत्रों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओ, फोटो और इंटरनेट वेबसाइटों इत्यादि के माध्यमों से प्राप्त प्रासंगिक साहित्य शामिल हैं।

निष्कर्ष एवं सुझाव-

उपरोक्त वर्णित विवरण से स्पष्ट है कि आज के इस आधुनिक युग में सावित्रीबाई फुले के देश के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक विकास में किए गए योगदान से प्रेरणा पाकर हमारे देश के सतत् विकास में अहम् भूमिका निभा सकते हैं । सावित्रीबाई फुले ने  सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, विशेषकर महिलाओं के सशक्तिकरण और शिक्षा के क्षेत्र में। उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। । सावित्रीबाई फुले के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक विचार, महिलाओं और वंचित वर्गों के सशक्तिकरण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और सभी को एक साथ प्राप्त करने की आवश्यकता है।सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा, सामाजिक सुधार, और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। उनके कार्यों ने महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और उन्हें सामाजिक, आर्थिक न्याय दिलाने में मदद की। महिला सशक्तिकरण ही एक समृद्ध, न्यायपूर्ण समाज और सतत् विकास का आधार हैं । इसलिए महिलाओं को हर एक क्षेत्र में  सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक रूप से सशक्त एवं शक्तिशाली बनाकर ही, हमारे देश का विकसित भारत का सपना साकार हो सकता हैं और हमारा देश निरन्तर प्रगति तथा उत्कर्ष की नई ऊंचाईयों को छु सकता हैं । 10 मार्च 1897 में, प्लेग महामारी के दौरान, उन्होंने संक्रमित लोगों की सेवा की और खुद भी इस बीमारी से संक्रमित होकर शहीद हो गईं । परंतु उनके द्वारा जलाई गई ज्योति की क्रांति निरंतर रूप से प्रकाश देकर लोगों का मार्गदर्शन कर रही है । संक्षेप में सावित्रीबाई फुले निर्भीक और स्वतंत्र प्रथम महिला शिक्षक, विदुषी, समाज सुधारक, आदि कावित्री, समतावादी चिंतक, महिला शक्तिकरण की परोपकार व अग्रदूत के विचार आज भी प्रसंगिक हैं ।

संदर्भ सूची

  1. दीपंकर श्रीज्ञान के अनुसार – “सतत् विकास की अवधारणा” प्रकाशक गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के निर्देशक, योजना शोध पत्र अक्टूबर 2019.
  2. डॉ. सोनम चौधरी के अनुसार – “प्रथम महिला शिक्षिका : सावित्रीबाई फुले का योगदान” शोध पत्र (IJESSAHR) 25 Dec. 2022.
  3. डॉ. सावित्री तड़ागी के अनुसार – “सावित्रीबाई फुले : भारत की पहली महिला शिक्षिका एवं समाजसुधारक” शोध पत्र (IJSAIRS) 8 Aug. 2020.
  4. सुमन मीणा (सहायक आचार्य) “सतत् विकास – वतर्मान समय की आवश्यकता” शोध पत्र, IJEMMASS, राजकीय महाविद्यालय, देवली, टोंक, राजस्थान April – June, 2022.
  5. डॉ. राकेश कुमार समोता “सतत् विकास की अवधारणा : पर्यावरण एवं विकास के बीच सामंजस्य/ संतुलित” शोध पत्र, IJFMR, कोटा विश्वविद्यालय, कोटा राजस्थान, 2 March -April 2023.
  6. डॉ. विनोद कुमार श्रीवास्तव व संयोजक डॉ. अमितेन्द्र सिंह, “आर्थिक विकास” प्रकाशक कुल सचिव, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल, (2017).
  7. राकेश कुमार रोशन एवं अमित निरंजन सिंहा “अर्थशास्त्र” अरिहंत पब्लिकेशंस (इंडिया लिमिटेड नई दिल्ली, 2018).
  8. डॉ. संजीव महाजन, डॉ. नीरजा सिंह, डॉ.योगेशचन्द्र “सामाजिक अनुसंधान विधि एवं कम्प्यूटर अनुप्रयोग” प्रकाशक कुलसचिव, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल (2020).
  9. श्री बंगारु दत्तात्रेय के अनुसार – “सावित्रीबाई फुले महिला शिक्षा व महिला सशक्तिकरण की महान् प्रेरणा” शोध पत्र 2021.
  10. श्रीमती शुचि अरोड़ा के अनुसार – “सावित्रीबाई फुले का महिला शिक्षा और समाज-सुधार में योगदान” शोध पत्र (IJNRD.ORG) 1JAN. 2022.
  11. भारती, अनीता “सावित्रीबाई फुले की कविताएं” स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, (2015).
  12. उपदेश एच.सी. “भारत में महिलाओं की स्थिति” खण्ड 2 अनमोल प्रकाशन, नई दिल्ली 1991.
  13. कीर धनंजय “महात्मा ज्योतिराव फुले – भारतीय क्रांति के जनक” लोकप्रिय प्रकाशन प्रा. लि. 35- सी पंडित मदनमोहन मालवीय मार्ग, (1997).
  14. पाटील, प्रो. पी.जी. महात्मा ज्योतिराव फुले, खंड शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, मुम्बई 400032.
  15. कुशवाह मधु “जेंडर और शिक्षा” प्रकाशक गंग सरन ऐण्ड ग्रेण्डसंस वाराणसी, (2014).
  16. रुपया कुमारी के अनुसार- “महिला उत्थान में सावित्रीबाई फुले का योगदान” शोध पत्र ( ASY) 2013-2014.
  17. www.savitribaiphulejeevanprichy.com.
  18. www.savitribaiphulewithjyotiravphuleimages.com.
  19. www.savitribaiphuleimages.com.
  20. www.arthikvikasimages.com.
  21. www.sasttvikasimages.com
  22. गूगल ब्राउज़र इत्यादि।
error: Content is protected !!
Scroll to Top